भाजपा के लिए ज्यादा बड़ा खतरा कौन? चंद्रबाबू नायडू या नीतीश कुमार

Jun9,2024 | Rajesh Kocher | Moga




दोनों ही नेता पहले भी NDA का साथ छोड़ चुके हैं. फिलहाल दोनों ही NDA में सहयोगी हैं. 

नरेंद्र मोदी पर भरोसा जता रहे हैं. लेकिन सवाल है कब तक?





वरिष्ठ पत्रकार राजेश कोछड़


नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति भवन जाकर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया है. संसद के सेंट्रल हॉल में 7 जून को NDA के घटक दलों ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री चुना. बीजेपी के प्रस्ताव का गठबंधन के सभी दलों ने समर्थन किया और नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री चुन लिया गया. इस दौरान समर्थन पेश करने आए सहयोगी दलों के नेताओं ने गठबंधन में अपनी पूरी प्रतिबद्धता जाहिर की. इनमें चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार भी शामिल थे. NDA में बीजेपी के बाद सबसे बड़े दलों के नेता हैं. इन्हीं दोनों नेताओं पर सबकी नजर भी है. दोनों ही नेता पहले भी गठबंधन से अलग हो गए. हालांकि, इस बार अब तक ऐसी संभावना नहीं दिख रही है. मगर इस संभावना को भी नहीं नकारा जा सकता कि आने वाले समय में ऐसा हो सकता है कि चंद्रबाबू नायडू की TDP और नीतीश कुमार की JDU केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लें. तो सवाल है कि अगर ऐसे परिस्थिति बनती भी है तो ज्यादा कमजोर कड़ी कौन सी है. चंद्रबाबू नायडू या नीतीश कुमार. इस सवाल के जवाब को खोजने के लिए जरूरत है नायडू और नीतीश के राजनीतिक सफर पर थोड़ा प्रकाश डालने की.
ससुर का ही तख्तापलट कर दिया

70 के दशक में राजनीति शुरू करने वाले चंद्रबाबू नायडू महज 28 साल की उम्र में विधायक बन गए थे. साल 1978 में कांग्रेस के टिकट पर वो चंद्रागिरी विधानसभा सीट से चुनकर MLA बने. पहली बार विधायक बने नायडू को सरकार में जगह भी दी गई. 1980 से 83 तक वो सरकार में मंत्री रहे.

मंत्री रहने के दौरान ही उनकी दोस्ती तेलगू सिनेमा के सुपरस्टार और राजनीति में पदार्पण करने जा रहे NT रामाराव से हुई. जिन्हें NTR के नाम से जाना जाता है. ये दोस्ती जल्दी ही रिश्तेदारी में भी बदल गई. 1981 में चंद्रबाबू नायडू की NTR की बेटी नारा भुवनेश्वरी से शादी हुई.


दो साल बाद आंध्र प्रदेश में चुनाव हुए. और NTR की तेलगू देशम पार्टी ने आंध्र प्रदेश में सूपड़ा साफ कर दिया. यहां तक कि चंद्रबाबू नायडू भी अपने ससुर की पार्टी के कैंडिडेट के हाथों अपनी सीट हार गए. लेकिन मौके को भांपते हुए उन्होंने पार्टी बदल ली और नायडू भी TDP में शामिल हो गए. वही पार्टी जिसके वो सर्वेसर्वा हैं. लेकिन सर्वेसर्वा बनने की भी दिलचस्प कहानी है.

1983 में TDP को बहुमत मिला, NTR मुख्यमंत्री बने. 1989 में NTR की पार्टी हार गई, लेकिन चंद्रबाबू नायडू चुनाव जीत गए. उनकी पार्टी विपक्ष में बैठी. और ससुर रामा राव नेता विपक्ष बने. पांच साल तक उन्होंने विपक्ष में रहकर राजनीतिक की. 1994 में फिर चुनाव हुए. इस बार NTR की पार्टी ने चुनाव बहुमत हासिल किया. और वो एक बार फिर मुख्यमंत्री बने.

लेकिन इस बार वो ज्यादा दिन तक कुर्सी पर नहीं रह पाए. इसलिए नहीं कि विपक्ष ने उनसे सत्ता हथिया ली थी. बल्कि एक अपने ने ही उनका तख्तापलट कर दिया था. NTR के बेटों के साथ मिलकर दामाद चंद्रबाबू नायडू ने ना सिर्फ उनकी पार्टी पर कब्जा कर लिया, बल्कि मुख्यमंत्री की कुर्सी भी छीन ली. 1 सितंबर, 1995 को चंद्रबाबू नायडू ने तेलगू देशम पार्टी पर कब्जा कर लिया और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए.



जब TDP के स्पीकर ने गिराई अटल बिहारी सरकार! 

1998 के लोकसभा चुनाव में जनता ने किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं दिया. बीजेपी को 181 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 141 सीटें. कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति से मिलकर सरकार बनाने से मना कर दिया. सोनिया ने राष्ट्रपति केआर नारायण से कहा कि 'उनके पास नंबर नहीं हैं.'

सबसे बड़े दल होने के नाते राष्ट्रपति ने बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दिया. तमाम दलों को इकट्ठा कर अटल बिहारी वाजपेयी ने मार्च 1998 में सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. टीडीपी को आंध्र प्रदेश में 29 सीटें मिली थीं. अटल बिहारी की सरकार में चंद्रबाबू नायडू ने समर्थन देने का फैसला किया. स्पीकर पद टीडीपी के पास ही था. जीएमसी बालयोगी इस सरकार में लोकसभा के स्पीकर बने.

इस सरकार में जयललिता की AIADMK भी शामिल थी. लेकिन सरकार के गठन के साथ ही वाजपेयी से उनकी खटपट शुरू हो गई थी. कहा जाता है कि जयललिता की कई मांगे थीं जिन्हें अटल बिहारी पूरा नहीं कर पा रहे थे. एक साल बीता और जयलिलता ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया.

'वाजपेयी द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया' किताब लिखने वाले शक्ति सिन्हा बीबीसी के रेहान फज़ल को बताते हैं कि जयललिता चाहती थीं कि उनके ख़िलाफ़ सभी मुकदमे वापस लिए जाएं और तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार को बर्ख़ास्त किया जाए. इसके अलावा वो सुब्रमण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनवाने पर भी ज़ोर दे रही थीं. वाजपेयी इसके लिए तैयार नहीं हुए. और जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया.

15 अप्रैल 1999 को वाजपेयी ने विश्वास प्रस्ताव पेश किया. अटल बिहारी आश्वस्त थे कि सरकार बचा लेंगे. लेकिन जब वोटिंग हुई तो 270 वोट विरोध में पड़े और पक्ष में 269. एक वोट से अटल बिहारी की सरकार गिर गई.

कहा जाता है कि इस सरकार को गिराने में मायावती, सैफुद्दीन सोज़ और गिरधर गमांग की अहम भूमिका थी. मायावती ने अटल को मौखिक आश्वासन दिया था. लेकिन वोट विरोध में डाला. सैफुद्दीन सोज़ जम्मू कश्मीर की नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता थे. सोज़ ने भी सरकार के खिलाफ वोट डाला, जबकि फारुख अब्दुल्ला की पार्टी सरकार में शामिल थी. आखिरी नाम आता है गिरधर गमांग का. जिनकी चर्चा सबसे ज्यादा होती है.

इस ट्रस्ट वोट से एक महीने पहले गमांग ओडिशा के मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा नहीं दिया था. जब फ्लोर टेस्ट की बारी आई तो गमांग संसद पहुंच गए. सत्ता पक्ष की तरफ से इसका विरोध किया गया. गमांग वोट करेंगे या नहीं, ये फैसला स्पीकर को लेना था. अध्यक्ष बालयोगी ने लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल एस गोपालन से इस विषय पर सलाह मांगी. गोपालन ने एक पर्ची लिखकर बालयोगी को दी. बालयोगी ने पूरा मामला गोमांग के विवेक पर छोड़ दिया. गोमांग ने सरकार के खिलाफ वोट किया और एक वोट से अटल बिहारी की सरकार गिर गई.

TDP नेता बालयोगी, अगर गोमांग को वोट देने के अधिकार से वंचित कर देते तो पक्ष और विपक्ष दोनों के बराबर वोट पड़ते. ऐसे में आखिरी मत स्पीकर का होता. और सरकार बच सकती थी. मगर ऐसा हो नहीं सका.


गुजरात दंगों के बाद मोदी का इस्तीफा मांगा

2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में दंगे हुए. तब राज्य के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी पर विपक्ष के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के लोगों ने सवाल उठाए. नरेंद्र मोदी के इस्तीफे की मांग की जा रही थी. ये मांग NDA के गठबंधन के साथी भी कर रहे थे. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2002 में नायडू ने मोदी के इस्तीफे की मांग की. इस विषय पर उनको समर्थन मिला एनडीए के अन्य सहयोगियों जैसे तृणमूल कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी और जेडीयू का. इन चारों दलों ने एनडीए की केंद्रीय समिति द्वारा बुलाई गई बैठक का बहिष्कार किया.

TDP लगातार इस मांग को दोहराती रही लेकिन बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को नहीं हटाया. हालांकि, नायडू ने NDA से समर्थन वापस नहीं लिया.

2004 में लोकसभा चुनाव हुए. बीजेपी का इंडिया शाइनिंग का नारा नहीं चला और सत्ता वापसी नहीं हो पाई. इधर आंध्र प्रदेश विधानसभा में चंद्रबाबू नायडू की पार्टी का भी बुरा हाल हुआ. मात्र 47 सीटें मिलीं. लोकसभा में सिर्फ 5 सीटें मिलीं. इसके बाद नायडू गुजरात दंगों पर ठीकरा फोड़ते हुए NDA से अलग हो गए.

2018 में ब्रेकअप

2004 में गठबंधन छोड़ने के बाद 2014 में चंद्रबाबू नायडू एक बार फिर NDA में आ गए. चार साल साथ रहे 2018 में उन्होंने मोदी सरकार पर आंध्र प्रदेश की अनदेखी करने का आरोप लगाते हुए गठबंधन छोड़ दिया.

मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र विधानसभा में कहा, "मैंने यह फैसला स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि आंध्र प्रदेश के हितों के लिए लिया है. चार साल तक मैंने हरसंभव प्रयास किए, 29 बार दिल्ली गया, कई बार पूछा. यह केंद्र का आखिरी बजट था और इसमें आंध्र प्रदेश का कोई जिक्र नहीं था."

दरअसल, आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद से नायडू अपने राज्य के लिए स्पेशल स्टेटस मांग रहे हैं. 2018 में गठबंधन से अलग होने का कारण भी उन्होंने यही बताया था. इस बार नायडू नरेंद्र मोदी को पूरा समर्थन देने की बात कह रहे हैं. लेकिन नतीजों के दिन ही उन्होंने संदेशा भिजवा दिया था कि आंध्र प्रदेश के लिए स्पेशल स्टेटस देना होगा.

अभी क्या स्थिति है?

चंद्रबाबू नायडू की इस समय पांचों उंगलियां घी में हैं. आंध्र प्रदेश विधानसभा में अपने दम पर बहुमत हासिल है. यानी पांच साल तक चंद्रबाबू नायडू को मुख्यमंत्री पद से कोई नहीं हटा सकता. जब तक उनके खुद के विधायक ना तोड़ लिए जाएं.  लोकसभा चुनाव की बात करें तो 16 सीटें जीतकर NDA में दूसरा सबसे बड़ा दल TDP है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लिए नायडू का समर्थन चाहिए. यानी फिलहाल नायडू किंगमेकर की भूमिका में हैं.

TDP ने केंद्र में 4 मंत्रीपद और स्पीकर का पद मांगा है. हालांकि, बीजेपी स्पीकर का पद देने के मूड में है नहीं. क्योंकि 'दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है.'

इस बार नहीं पलटेंगे नीतीश?

नीतीश कुमार जय प्रकाश नारायण स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स के छात्र रहे हैं. नीतीश और लालू दोनों ने लगभग एक साथ राजनीति की शुरुआत की थी. हालांकि लालू को चुनावी सफलता जल्दी मिली. नीतीश को थोड़ा इंतजार करना पड़ा.

दो चुनाव हारने के बाद 1985 में नीतीश कुमार पहली बार विधायक बने. हालात यहां तक पहुंच चुके थे कि नीतीश ने घर पर ये कह दिया था कि ये उनका आखिरी चुनाव होगा. अगर नहीं जीते, तो राजनीति छोड़ देंगे. लेकिन लोक दल के टिकट से हरनौत सीट से नीतीश कुमार ने पहली बार विधानसभा में कदम रख ही दिया. उस दौरान नीतीश और लालू करीबी हुआ करते थे. दोस्ती इतनी थी कि राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को एक तरफ रखकर नीतीश ने अपने समर्थन से लालू को विपक्ष का नेता बनवाया.

1989 में लोकसभा चुनाव हुए. वीपी सिंह राजीव गांधी के खिलाफ बिगुल फूंक चुके थे. वीपी सिंह की लहर थी. नीतीश कुमार को बिहार के बाढ़ से टिकट मिला. वो जीते और पहली बार लोकसभा पहुंचे. वीपी सिंह की सरकार में राज्य मंत्री भी बनाए गए. पर कुछ दिन बाद लालू के तौर-तरीकों से नीतीश का मन उचटने लगा. 1994 में उन्होंने आखिरकार जनता दल से अलग होने का मन बनाया. और तब उन्हें छत्रछाया मिली जॉर्ज फर्नांडिस की.

1994 में जॉर्ज ने जनता दल के 14 सांसदों के साथ मिलकर नई पार्टी बनाई जनता दल (जॉर्ज). नीतीश भी इस दल का हिस्सा बन गए. कुछ ही महीनों बाद जॉर्ज और नीतीश ने मिलकर समता पार्टी बनाई. समता पार्टी ने बीजेपी के साथ जाना तय किया. और 1998 में अटल बिहारी सरकार में उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया. ये NDA की ही सरकार थी जब नीतीश कुमार ने पहली बार सत्ता का सुख चखा.

2003 में नीतीश, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव ने मिलकर नई पार्टी बनाई जनता दल (यूनाइटेड) - JDU. इसी जद(यू) के सर्वेसर्वा आज नीतीश कुमार हैं.

2005 के बिहार विधानसभा चुनाव. तब बीजेपी ने अरुण जेटली को राज्य में पार्टी का प्रभारी बनाया. ये अरुण जेटली के दिमाग की उपज थी कि चुनाव से पहले मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा हो और सीएम कैंडिडेट नीतीश कुमार को घोषित किया जाए. बीजेपी और जेडीयू में खूब मंत्रणा के बाद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया गया. राज्य में NDA की सरकार बनी और नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने.

अगला चुनाव भी नीतीश के नेतृत्व में लड़ा गया. बीजेपी और जेडीयू की जोड़ी को प्रचंड बहुमत मिला. नीतीश कुमार 2010 में एक बार फिर मुख्यमंत्री बने.

पहली बार NDA छोड़ा

केंद्र में UPA की मनमोहन सिंह सरकार थी. 2G घोटाल, कॉमनवेल्थ घोटाला, कोयला घोटाला, काला धन, लोकपाल बिल, अन्ना आंदोलन. एक के बाद एक मुद्दे UPA सरकार के खिलाफ माहौल बनाते चले गए. दूसरी तरफ बीजेपी ने पेश किया गुजरात मॉडल. नरेंद्र मोदी की 'विकासपुरुष' की छवि को प्रचारित गया. यहां से नीतीश के मन में खटपट शुरू हो गई थी. क्योंकि उन दिनों नीतीश कुमार की भी खूब वाहवाही हो रही थी. उन्होंने सड़कों का जाल बिछाया था. कानून व्यवस्था ठीक की थी. इसलिए वो भी खुद को नरेंद्र मोदी से कमतर आंकना नहीं चाहते थे.

कहा जाता है कि नीतीश कुमार खुद को तब से प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानते रहे है. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट घोषित कर दिया. नीतीश नाराज़ हो गए. और उन्होंने NDA का साथ छोड़ दिया. नीतीश ने अकेले बिहार में लोकसभा चुनाव लड़ा. बुरी तरह हार हुई. उनकी पार्टी को सिर्फ 2 सीटें मिलीं.


लालू से गठबंधन, फिर ब्रेकअप

2014 लोकसभा में बुरी तरह हारने के बाद नीतीश ने ऐसा दांव चला जो राजनीतिक पंडितों ने सोचा भी नहीं था. 1994 में नीतीश ने लालू का साथ छोड़ा था. लेकिन बिहार में 2015 विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश ने लालू के साथ गठबंधन कर लिया. कांग्रेस के साथ मिलकर नाम दिया गया महागठबंधन. नीतीश तब भी बिहार के मुख्यमंत्री थे और लालू से इस बात की घोषणा भी करवा दी थी कि अगर महागठबंधन जीतेगा तो मुख्यमंत्री नीतीश ही होंगे.

महागठबंधन को चुनाव में जीत मिली. नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बने. 2015 में महागठबंधन ने सरकार बनाई. नीतीश मुख्यमंत्री, लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम और मिली-जुली सरकार. लेकिन डेढ़ साल बीते थे और नीतीश कुमार का मन डोल गया. इस बार अंतरआत्मा की आवाज़ आई. उसने कहा कि बीजेपी के साथ चले जाना चाहिए तो नीतीश NDA के साथ चले गए. सरकार बदली, डिप्टी सीएम भी बदले, लेकिन सीएम नहीं बदले. मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश कुमार के पास ही रही.

फिर NDA में, फिर ब्रेकअप

2017 में NDA में आने के बाद नीतीश कुमार 2019 का लोकसभा चुनाव साथ लड़ा. बीजेपी-जेडीयू और एलजेपी के गठबंधन ने बिहार की 40 में से 39 सीटें जीतीं.अगले दो साल तक सब ठीक चलता रहा. उसके बाद नीतीश और तेजस्वी नज़दीकियां बढ़ने लगीं. कभी इफ्तार पार्टी के बहाने तो कभी जाति जनगणना पर मीटिंग के बहाने, दोनों की मुलाकातें होने लगीं.

दूसरी तरफ 2021 में जब नरेंद्र मोदी सरकार का मंत्रिमंडल विस्तार हुआ तो जेडीयू ने अपने कोटे से दो मंत्री मांगे. जेडीयू के लिए बार्गेन करने उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह आए थे. बीजेपी ने आरसीपी को ही फांस लिया. उन्हें मंत्री बना दिया. नीतीश और ज्यादा नाराज़ हो गए. खींचतान के बीच आखिरकार नीतीश ने 2022 में एक बार फिर एनडीए को टाटा बोल दिया.


INDIA गठबंधन बनाया और खुद बाहर हो गए

केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार ना बने इस प्रण के साथ नीतीश कुमार ने नया गठबंधन बनाया. विपक्ष के सभी दलों को एक-एक करके एकजुट किया. पटना से दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता सब जगह दौड़ लगाई और विपक्षी पार्टियों को एकजुट किया. पटना में पहली मीटिंग की. बेंगलुरु की दूसरी मीटिंग में INDIA गठबंधन नाम दिया गया.

कहा जाता है कि नीतीश कुमार इस गठबंधन के सहारे खुद दिल्ली तक का सफर तय करना चाह रहे थे. वो चाहते थे कि INDIA गठबंधन में उन्हें संयोजक का पद दिया जाए. ताकि भविष्य में परिस्थिति बने तो वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी हों. लेकिन दिसंबर 2023 में दिल्ली की बैठक में ममता ने खरगे को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने का प्रस्ताव देकर नीतीश को किनारे लगा दिया. बाद में खरगे को गठबंधन का चेयरमैन भी बना दिया गया.

नीतीश कुमार का सपना एक बार फिर उनसे दूर होता दिख रहा था. दूसरी तरह खबरों के मुताबिक उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने उनके पीठ पीछे कथित तौर पर लालू से सेटिंग कर ली थी. नीतीश ने राजनीति को भांपते हुए पहले ललन सिंह को किनारे लगाया. फिर जनवरी 2024 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जिस गठबंधन को उन्होंने मूर्त रूप दिया उसे ही छोड़कर NDA में शामिल हो गए.

फिलहाल क्या स्थिति?

इस बार के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को 12 सीटें मिली हैं. बीजेपी को भी 12 सीटें मिली हैं. लेकिन नीतीश का कद अपने आप इसलिए बढ़ गया क्योंकि बीजेपी को बहुमत के लिए नीतीश की जरूरत है.

नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण तक दिल्ली में ही हैं. संसद के सेंट्रल हॉल में उन्होंने अपने अंदाज में आश्वासन दिया- 'मोदी जी जल्दी से काम शुरू करें, हम उनका समर्थन करते हैं.' मौजूदा हालात में नीतीश कुमार एनडीए को छोड़ते नहीं दिखाई दे रहे. क्योंकि उनके अकेले गठबंधन छोड़ देने पर बीजेपी का नंबर गेम नहीं बिगड़ेगा. लेकिन नीतीश की राजनीति के स्टाइल को जानने वाले ये जरूर कहते हैं कि जिस दिन नीतीश इस बात से आश्वस्त हो जाएंगे कि INDIA गठबंधन के पास सरकार गिराने भर के सांसद आ गए हैं, नीतीश पलटी मारने में दो बार नहीं सोचेंगे.



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